नई दिल्ली. क्या आपने कभी कोई प्रोडक्ट खरीदने से पहले उसके पीछे बनी काली मोटी-पतली रेखाओं को ध्यान से देखा है। आपको बता दें, इसे बारकोड कहा जाता है, जिसमें उस प्रोडक्ट की सारी जानकारी छिपी होती है।
आज बारकोड 40 साल का हो गया है। रिग्ले का जूसी फ्रूट गम का 10 यूनिट का पैक 26 जून 1974 में पहली बार बारकोड स्कैन किया गया था। आज भी इसका असली पैक म्यूजियम में रखा गया है।
बारकोड से होते हैं ये फायदे
-जब भी कोई मैन्युफैक्चरर एक प्रोडक्ट को शिपमेंट के लिए पैक करता है तो उस बॉक्स को एक यूनीक आईडेंटिटी नंबर दे सकता है।
-इस आईडेंटिटी नंबर का प्रयोग डेटाबेस के साथ लिंक करने में किया जाता है, जिसमें ऑर्डर नंबर, पैक किए गए आइटम, कितनी मात्रा पैक की गई है और सामान कहां भेजा जाना है,ये सारी जानकारियां होती हैं।
-बारकोड का इस्तेमाल करके एकत्र किया गया डेटा किसी प्रोडक्ट की डिमांड का पता लगाने में किया जा सकता है।
कहां से आया बारकोड का आइडिया
वैलेन्स फ्लिंट (Wallance Flint) वह पहले इंसान थे, जिन्होंने 1932 में पहली बार एक ऐसे सिस्टम की बात की जो चीजों को ऑटोमेटेड तरीके से चेक करे। फ्लिन्ट का यह आइडिया उस समय मुमकिन नहीं लगा, लेकिन 40 साल बाद फ्लिन्ट ने नेशनल एसोसिएशन ऑफ फूड चेन्स के वाइस प्रेसिडेंट की तरह एक बार फिर कोशिश की, जिससे यूनीफॉर्म प्रोडक्ट कोड सामने आया।
नॉर्मेन जोसेफ वुडलैंड और बर्नार्ड सिल्वर को 20 अक्टूबर 1949 में बारकोड के आविष्कार का श्रेय जाता है, जिन्होंने एक पेटेंट एप्लिकेशन सीरियल नंबर 122,416 फाइल किया था, जो बाद में पेटेंट नंबर 2,612,994 बना। इस तरह वुडलैंड और सिल्वर ने इस कॉन्सेप्ट के सिंबल और रीडर पर अपना अधिकार बनाया है। 1974 में पहली बार एक सुपरमार्केट में यूपीसी बारकोड को वास्तव में इस्तेमाल में लाया गया।
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